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मन की व्यथा ( पिता के समर्पण पर कविता) -11-Sep-2022

कविता -मन की व्यथा( पिता का समर्पण पर कविता)

छुपाता रहूं कब तलक मन की पीड़ा
   सुलगते सुलगते जलाता है तन को |

                    समझा था जीवन की ज्योति सा बनकर,
                    बनेगा सहारा बुढ़ापा तिमिर में  |
                    कट जाएगा अवशेष जीवन कठिन पल
                    पलकों का सपना सजाया था दिल में |


कहूं दोष खुद का या कोसूं मुकद्दर,
बना आज जीवन कुम्हलाता नीरज |
दीपक समझकर संभाला था जिसको,
जलाया मुझे बन दुपहरी का सूरज  |

                   बताऊं कैसे व्यथा अपने मन की ,
                   बिठाऊं कहां से कहां अपनेपन को |
                   छुपाता रहूं कब तलक मन की पीड़ा
                   सुलगते सुलगते जलाता है तन को |


कर त्याग केंचुल सा जननी की ममता,
गया बन निर्मम किस सपने में खोये |
न बन बेखबर हो सजग मेरे प्यारे,
गया टूट बन्धन तो फिर जुड़ न पाये |

                    किया क्या न पूजा दुआ तेरे खातिर,
                    कर दी आहूति खुद के सपने सजोये |
                    बस  तू ही था सच्चे सपने निराले,
                    हम रखे सदा तुझको दिल से लगाये |

सदा सोचता कि भूल जाऊं किये को,
भीगी आंख से देखता हूं गगन को |
छुपाता रहूं कब तलक मन की पीड़ा
सुलगते सुलगते जलाता है तन को |


                     अभिशाप बन न तू इकलौता औलाद  ,
                     क्यों बन गया है तु हत्यारा जल्लाद |
                     खुद सोंच गया छोड़ यदि तेरी दुनिया,
                    पायेगा फिर न पिताजी का आह्लाद ||


मैं देखा करता  तेरा राह पल पल,
हुआ शाम कब आयेगा नेत्र-तारा |
तनहा ठगा सा  हो जाता बेगाना,
तु था मेरी दुनिया, प्यारा, दुलारा |

                      मिलने को तुमसे तरसता हूं मैं अब ,
                      बैठ पास ले रोक दिल के ज़लन को |
                      छुपाता रहूं कब तलक मन की पीड़ा
                      सुलगते सुलगते जलाता है तन को |


                       मां

बोलो कम आप खुद को संभालों 
सिवाय आपके कौन  सहारा मेरा |
दिल को पत्थर बना समझो मैं बांझ थी,
खाके दो जून रोटी रहें हम पड़ा |


                       न सताओ कभी आपने मां बाप को,
                       धर के मंदिर में बैठे भगवान है |
                       कर लो तीरथ बरत  सब जगह घूम कर,
                       सबसे पावन ही इनके चरण धाम है


जीना है जीवन यह अंतिम घड़ी तक,
बिसारा भले है पर देगा कफन तो |
भुलाते रहो तब तलक मन की पीड़ा,
जब तक न जाते हैं दूसरे वतन को |
                    

                 जब  गैर होते हैं अपनों से बढ़कर
                 हम इसके  हैं अपने पराये नहीं है
                 भले छोड़ कर वह रहे दूर हमसे
                 हम उसके बिना रह पाये नहीं है

  बने वह हमारे लिए नागफनी सा
  हमें तुलसी बनके रहना पड़ेगा
  छोटी सी जीवन बड़ी हो चली है
  मिला गर है जीवन तो जीना पड़ेगा


                  बेटी गर होती तो वह चाह करती
                  जी आज करता है तुमसे मिलन को 
                  छुपाता रहूं कब तलक मन की पीड़ा
                  सुलगते सुलगते जलाता है तन को |


इतना भला क्या कि रखा है घर में
नही भेज देता किसी आश्रम में
देखा है बहुतो के लाशों का सिदृदत
लाशों के उपर से बिकते कफ़न को

                  छुपाता रहूं कब तलक मन की पीड़ा
                  सुलगते सुलगते जलाता है तन को |

रचनाकार -रामवृक्ष बहादुरपुरी, अम्बेडकरनगर
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11 Comments

Palak chopra

12-Sep-2022 09:42 PM

Bahut khoob 🙏🌺

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Ajay Tiwari

12-Sep-2022 05:17 PM

Nice

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Punam verma

12-Sep-2022 08:59 AM

Nice

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